अशोक कुमार: भारतीय सिनेमा के दादामुनी और उनकी 60 साल की शाही विरासत

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भारतीय सिनेमा का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, अशोक कुमार का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित होगा। दादामुनी के नाम से प्रसिद्ध अशोक कुमार न सिर्फ हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार थे, बल्कि उन्होंने अपने दमदार अभिनय और व्यक्तित्व से भारतीय फिल्मों में नई धारा की शुरुआत की। उनका जन्म 13 अक्टूबर 1911 को बिहार के भागलपुर में हुआ था। मूल नाम कुमुदलाल कुंजीलाल गांगुली था, लेकिन वे अपने परिवार के सबसे बड़े पुत्र थे, इसलिए ‘दादा’ कहलाए और बाद में पूरे इंडस्ट्री के ‘दादामुनी’ बन गए।

कैसे एक्सीडेंटली बने सुपरस्टार

अशोक कुमार की फिल्मों में एंट्री पूरी तरह से आकस्मिक थी। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वे एक दिन फिल्मों के सबसे बड़े स्टार बनेंगे। टेक्निकल क्षेत्र में करियर बनाने का उनका सपना था और वे बॉम्बे टॉकीज के सेट पर बतौर टेक्नीशियन काम कर रहे थे। उस समय फिल्म ‘जीवन नैया’ बन रही थी, जिसमें मुख्य भूमिका निभाने वाले एक्टर अचानक गायब हो गए। फिल्म की शूटिंग रुक गई, और एक्टर का कहीं अता-पता नहीं था। ऐसे में फिल्म के निर्माता और निर्देशक हिमांशु राय के पास कोई विकल्प नहीं था। उन्हें अशोक कुमार में हीरो की झलक दिखी, और उन्हें तुरंत फिल्म में मुख्य भूमिका के लिए कास्ट कर लिया गया।

अशोक कुमार: भारतीय सिनेमा के दादामुनी और उनकी 60 साल की शाही विरासत
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ड्रैगन लेडी के साथ पहली हिट

फिल्म ‘जीवन नैया’ में अशोक कुमार के साथ देविका रानी थीं, जो उस समय की सबसे बोल्ड और स्वतंत्र विचारों वाली अभिनेत्री मानी जाती थीं। उनके बिंदास स्वभाव और आत्मविश्वास के कारण उन्हें ‘ड्रैगन लेडी’ भी कहा जाता था। देविका रानी न सिर्फ बेहतरीन अभिनेत्री थीं, बल्कि वे अपने समय की सबसे प्रभावशाली और प्रभावशाली महिलाओं में से एक थीं। अशोक कुमार को इस फिल्म के लिए शुरुआती झिझक जरूर थी, लेकिन यह फिल्म सफल रही। इसके बाद 1936 में दोनों ने साथ में एक और फिल्म ‘अछूत कन्या’ की, जिसने भारतीय सिनेमा में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। फिल्म ने सामाजिक बंधनों पर सवाल उठाए और उस समय की बेहतरीन ब्लॉकबस्टर फिल्मों में से एक साबित हुई।

पहला एंटी-हीरो और नया ट्रेंड

अशोक कुमार को हिंदी सिनेमा का पहला एंटी-हीरो माना जाता है। उन्होंने अपनी फिल्मों में हमेशा पारंपरिक नायक के ढर्रे से हटकर काम किया। जब वे ‘किस्मत’ (1943) जैसी फिल्मों में आए, तो उन्होंने दर्शकों को नायक के नए स्वरूप से परिचित कराया। ‘किस्मत’ में उन्होंने एक चोर की भूमिका निभाई थी, लेकिन उनके किरदार में ऐसा कुछ था, जो लोगों को बहुत पसंद आया। यह फिल्म भी उस समय की बड़ी हिट साबित हुई और इसने उन्हें एक स्थायी स्टार बना दिया।

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छह दशकों का सुनहरा करियर

अशोक कुमार के करियर का सफर एक या दो फिल्मों तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने अपने छह दशकों के करियर में 300 से अधिक फिल्मों में काम किया। उनकी फिल्मोग्राफी में कुछ बेहतरीन फिल्में शामिल हैं, जैसे ‘महल’ (1949), जो भारतीय सिनेमा की पहली हॉरर फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म ने न सिर्फ हॉरर जॉनर को जन्म दिया, बल्कि ‘आएगा आने वाला’ गाने के जरिए लता मंगेशकर को भी इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया।

‘परिणीता’ (1953) में उनकी भावनात्मक अदायगी ने लोगों को दिलों में गहरी छाप छोड़ी। इसी तरह ‘आशीर्वाद’ (1968) में उनके अभिनय ने उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार का हकदार बना दिया। इस फिल्म में उनके द्वारा गाया गया गाना ‘रेल गाड़ी’ आज भी एक प्रसिद्ध गीत है।

अशोक कुमार का करियर इतना लंबा और विविधतापूर्ण था कि उन्होंने कॉमेडी, ड्रामा, थ्रिलर, हर जॉनर में काम किया। फिल्म ‘खूबसूरत’ (1980) में उनका सख्त लेकिन प्यार करने वाला दादाजी का किरदार आज भी लोगों के दिलों में ताजा है। इसी तरह ‘चलती का नाम गाड़ी’ (1958) में अपने भाइयों किशोर कुमार और अनूप कुमार के साथ उनकी कॉमेडी को कौन भूल सकता है?

व्यक्तिगत जीवन और भाई किशोर कुमार

अशोक कुमार सिर्फ एक महान अभिनेता ही नहीं थे, बल्कि वे एक अद्भुत व्यक्ति भी थे। उनका अपने परिवार से गहरा लगाव था, खासकर अपने छोटे भाई किशोर कुमार से। किशोर और अशोक की जोड़ी न सिर्फ फिल्मी पर्दे पर, बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी बेहद खास थी। दोनों भाइयों ने एक साथ कई फिल्में की, जिनमें ‘चलती का नाम गाड़ी’ सबसे मशहूर है।

हालांकि, 1987 में उनके जीवन में एक बड़ा दुःख आया, जब उनके प्यारे छोटे भाई किशोर कुमार की मृत्यु हो गई। इस घटना ने अशोक कुमार को अंदर से तोड़ दिया। उन्होंने अपने जन्मदिन को मनाना छोड़ दिया, क्योंकि उसी दिन उनके पिता की भी मृत्यु हुई थी। यह गहरा दुख उनके जीवन के अंत तक उनके साथ रहा।

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दादासाहेब फाल्के पुरस्कार और भारतीय सिनेमा में योगदान

अशोक कुमार को उनके योगदान के लिए दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े सम्मान के रूप में जाना जाता है, और इसे पाकर अशोक कुमार ने अपने करियर की एक और ऊंचाई हासिल की। इसके अलावा, उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया था।

अशोक कुमार की जीवनी लिखने वाले नबेंदु घोष ने लिखा कि अशोक कुमार सिर्फ एक अभिनेता नहीं थे, बल्कि एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। वे एक चित्रकार, ज्योतिषी, कवि और भाषाविद् भी थे। उनका व्यक्तित्व इतना व्यापक था कि वे अपने दौर के लोगों के लिए एक आदर्श थे।

अशोक कुमार ने 10 दिसंबर 2001 को दुनिया से विदा ली, लेकिन वे आज भी सिनेमा प्रेमियों के दिलों में जिंदा हैं। उनकी फिल्मों के माध्यम से उन्हें सदियों तक याद रखा जाएगा। उन्होंने न सिर्फ भारतीय सिनेमा को दिशा दी, बल्कि एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया, जिसे आने वाली पीढ़ियां हमेशा मानेंगी।

दादामुनी अशोक कुमार का जीवन एक प्रेरणा है, जो यह सिखाता है कि कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करते हुए भी कैसे व्यक्ति अपने सपनों को साकार कर सकता है। उनकी विरासत हमेशा जीवित रहेगी और भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम इतिहास में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।

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