Navratri Goddess Mahagauri Devi Puja 2020 Day 8th; What is Special? Importance (Mahatva) and Navratri Significance | अष्टमी पर महागौरी की आराधना से असंभव भी होगा संभव, पापों का होगा नाश

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16 दिन पहले

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नवरात्रि के आठवें दिन मां दुर्गा के आठवें स्वरूप मां महागौरी की उपासना की जाती है। माता के इस स्वरूप ने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। उनका शरीर काला पड़ गया। प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें स्वीकार किया और उन पर गंगाजल डाला। इससे माता का शरीर कांतिवान और वर्ण गौर हो गया तब से उनका नाम गौरी हो गया।

स्वरूप

इनका वाहन वृषभ अर्थात् बैल है। उनकी एक भुजा अभयमुद्रा में है, तो दूसरी भुजा में त्रिशूल है। तीसरी भुजा में डमरू है तो चौथी भुजा में वरमुद्रा में है। इनके वस्त्र भी सफेद रंग के हैं और सभी आभूषण भी श्वेत हैं।

महत्त्व

महागौरी की आराधना से सोमचक्र जाग्रत होता है। इससे असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। समस्त पापों का नाश होता है। सुख-सौभाग्य की प्राप्ति होती है। हर मनोकामना पूर्ण होती है।

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मां गौरी ने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तप किया। इतना कठोर कि उनके शरीर का रंग बदल गया। या यों कहें कि तप का असर मां गौरी के शरीर पर भी पड़ा। ऐसा ही कठोर तप किया आनंदीबाई जोशी ने। वह देश की पहली महिला हैं जो एलोपैथी की डॉक्टर बनीं। यह पढ़ाई उन्होंने अमेरिका में की। आनंदीबाई अमेरिका जाने वाली पहली भारतीय महिला भी हैं। कम उम्र में मां बनने और 10 दिन बाद ही बच्चे की मौत ने उन्हें इतना झकझोर दिया कि उन्होंने एलोपैथी का डॉक्टर बनने की ठानी। उस दौर में जब महिलाओं का अमेरिका जाना तो दूर घर से अकेला निकलना अच्छा नहीं माना जाता था, मगर उन्होंने जो प्रण लिया उसे अपने पति गोपालराव के भरपूर सहयोग से पूरा किया और इतिहास रच डाला। हालांकि इस दौरान परदेस के मौसम, खान-पान और रहन सहन का उनके शरीर पर ऐसा असर पड़ा कि भारत लौटने के कुछ महीनों बाद ही उनका निधन हो गया।

9 साल की उम्र में 20 साल बड़े गोपालराव से हुई शादी

आनंदीबाई जोशी का जन्म 31 मार्च 1865 को पुणे में हुआ था। फिलहाल पुणे में कल्याण का वह हिस्सा ठाणे जिले में है। जमींदार परिवार में जन्मीं आनंदी का बचपन का नाम यमुना था। उनका परिवार बेहद रुढि़वादी था, जो सिर्फ संस्कृत पढ़ना जानता था। उस दौर में अंग्रेज सरकार ने जमींदारी को लेकर कुछ ऐसे बड़े बदलाव किए कि उनके परिवार की स्थिति खराब होती चली गई। वित्तीय संकट के दौरान महज 9 साल की उम्र में यमुना की शादी उनसे 20 साल बड़े गोपालराव जोशी से हुई। गोपालराव की पत्नी की मौत हो चुकी थी। उस जमाने में शादी के बाद महिलाओं का सरनेम ही नहीं बल्कि पूरा नाम बदल दिया जाता था। ऐसे में यमुना का नया नाम आनंदीबाई गोपालराव जोशी हो गया।

10 दिन के बच्चे की मौत से सदमा तो लगा, पर टूटी नहीं

14 वर्ष की उम्र में आनंदी एक बेटे की मां बनीं, मगर उनकी खुशी बेहद कम दिन रही। नवजात बेटे की 10 दिन बाद ही अनजान बीमारी के चलते मौत हो गई। इससे उन्हें गहरा सदमा लगा। यहीं से उनके जीवन पूरी तरह बदल गया। बच्चों की मौत से आनंदी बेहद दुखी तो थीं, मगर टूटी नहीं। उन्होंने तय किया कि वह बच्चों को ऐसे मरने से रोकने के लिए कुछ करके रहेंगी। उन्होंने डॉक्टर बनने का प्रण लिया। पति गोपालराव ने उनकी इसे पूरा करने में उनका साथ दिया। तब तक भारत में एलोपैथी की पढ़ाई नहीं होती थी। अब एक ही रास्ता था। डॉक्टरी पढऩे के लिए विदेश जाना। गोपालराव ने तैयारी शुरू कर दी।
शादीशुदा हिंदू औरत अमेरिका जाएगी, इस बात पर हो गया हंगामा
आनंदी और गोपालराव के फैसले पर परिवार और समाज में खूब हंगामा हुआ। एक विवाहित हिंदू महिला को विदेश भेजकर पढ़ाई कराने की बात पर कोई राजी ही नहीं हुआ। बढ़ते विरोध के बीच आनंदी ने बार-बार कहा, “मैं सिर्फ डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए अमेरिका जा रही हूं, मेरी इच्छा नौकरी करने की नहीं, बल्कि बच्चों की जान बचाने की है। मेरा मकसद भारत की सेवा करना और भारतीयों को असमय हो रही मौत से बचाना है।” आनंदी की इस बात बड़ा असर हुआ। तमाम हस्तियां और आम लोग मदद करने के लिए आगे आने लगे।

आखिर 1885 में बनी भारत की पहली महिला डॉक्‍टर

10 अक्टूबर, 1885 की इस तस्वीर में डॉ. आनंदीबाई जोशी, जापान की डॉ. केयी ओकामी और सीरिया की डॉ. तबत एम. इस्लामबूली।

10 अक्टूबर, 1885 की इस तस्वीर में डॉ. आनंदीबाई जोशी, जापान की डॉ. केयी ओकामी और सीरिया की डॉ. तबत एम. इस्लामबूली।

आनंदी जोशी 1883 में कोलकाता बंदरगाह से पानी की जहाज से न्यूयॉर्क के लिए रवाना हुईं। वहां पहुंचकर उन्होंने अमेरिका में पेंसिलवेनिया के वूमन मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई की। खर्च उठाने के लिए अपने सारे गहने बेच दिए। कई हस्तियों ने भी उनकी मदद की। इन उस समय के वाइसराय लॉर्ड रिपन भी शामिल थे। उन्होंने 200 रुपए की मदद दी। अमेरिका में अलग रहन-सहन, भाषा, खानपान से जूझते हुए आनंदी टीबी का शिकार हो गईं। इसके बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। उन्होंने 1885 वह एलोपैथी में ग्रेजुएट हो गईं। इस तरह वह न केवल एलोपैथी में भारत की पहली महिला डॉक्टर बनीं. बल्कि अमरीका जाने वाली पहली भारतीय महिला भी वही हैं। एलोपैथी की पढ़ाई के दौरान उन्होंने आर्य हिन्दुओं के बीच प्रसूती पर थीसिस लिखी। आनंदी को रानी विक्टोरिया ने भी पढ़ाई के लिए बधाई दी।

भारत लौटने के कुछ महीनों बाद ही हो गया निधन
1886 में वह डॉ. आनंदी बन कर भारत लौटीं। जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। कोल्हापुर की रियासत ने उन्हें स्थानीय अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल में महिला वार्ड की चिकित्सक प्रभारी बनाया, लेकिन देश की पहली महिला एक बार फिर टीबी का शिकार हो गईं। महज 22 साल की उम्र में 26 फरवरी 1887 को उनकी मृत्यु हो गई। उनकी छोटी सी उम्र ऐसी कहानियां लिख गई कि वह इतिहास बन गया।



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