Bihar Assembly Election 2020 Nitish Kumar Tejashwi Yadav Narendra Modi NDA vs Mahagathbandhan | ‘अतीत के खौफ’ बनाम ‘भविष्य की उम्मीदों’ के बीच बढ़ता ‘बिहार 2020’

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पटना18 मिनट पहलेलेखक: नागेंद्र

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बिहार 20-20 की ताजा थीम क्या है? दिल्ली में बैठे और बिहार पर नजर गड़ाए एक पत्रकार मित्र का सवाल था। एक ऐसा सवाल जिस पर आज सबकी नजरें हैं। सब इस पर गढ़े जा रहे किसी नए नरेटिव की तलाश में हैं। इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए बिहार चुनावों के पहले चरण की वोटिंग के ट्रेंड, इसके पहले और बाद के चुनाव प्रचार की रफ्तार और टोन को देखने की जरूरत है।

बिहार ही नहीं, इस पर नजरें रखने वालों के बीच भी अब यह चर्चा आम है। यह लगभग तय है कि इसी चर्चा का निष्कर्ष शेष दो चरणों के चुनाव का भविष्य भी तय करेगा, बिहार की राजनीति की आगे की दशा-दिशा भी। फिलहाल इन चर्चाओं के केंद्र में तो वह लड़ाई ही दिखाई दे रही है जो अब ‘अतीत के खौफ बनाम भविष्य की उम्मीद’ के दो खांचों में बंट चुकी है। पहले चरण की वोटिंग का ट्रेंड ही नहीं, इससे पहले और बाद में जमीन पर दिखे प्रचार का ट्रेंड भी यही बताता है कि बिहार का चुनाव अब इन्हीं दो पाटों के बीच आगे बढ़ेगा और इसी के इर्दगिर्द पूर्णाहुति होगी। प्रचार अभियानों की पूरी गतिविधि भी इसी पिच पर आगे बढ़ रही है। यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में भी मुखर होती दिखाई दी है, मुख्यमंत्री और जदयू सुप्रीमो नीतीश कुमार की बातों में भी, और महागठबंधन का सीएम चेहरा तेजस्वी यादव के भाषणों और संवाद की शैली में भी।

एनडीए के प्रचार के टोन और पिच को देखें। यह धीरे-धीरे विकास से हटकर, अतीत के खौफ पर ही ज्यादा से ज्यादा केंद्रित होता गया है। फर्क सिर्फ इतना आया कि पहले हमला सीधे लालू यादव और उनके शासन का नाम लेकर हो रहा था, अब लालू का नाम तो नहीं है लेकिन हमला तल्ख, सीधा और आक्रामक होता गया है। इस हमले के निशाने पर अब सीधे-सीधे तेजस्वी यादव हैं। कई बार नाम लेकर, कई बार बिना नाम लिए हुए। कहना न होगा कि लड़ाई जिस तरह तल्ख और सीधी हुई है, वह अब तेजस्वी बनाम नीतीश (हमले की रफ्तार देखें तो शायद नरेंद्र मोदी) हो चुकी है। कहना चाहिए कि एनडीए का पूरा प्रचार ही उस अतीत का खौफ दिखाने के इर्द-गिर्द घूम रहा है, जिस अतीत का आज के वोटर के एक बड़े वर्ग को पता ही नहीं है।

आईटी सेक्टर में काम करने वालीं शालिनी कहती हैं, ‘निशाने पर जिस तरह नई और तेजी से उभरती लीडरशिप आई है, वह चिंता की बात है।’ बीती शाम पटना के बोरिंग केनाल रोड के एक रेस्तरां में शालिनी और उनके दोस्त की यह चिंता उस नए नरेटिव को समझने में सहायक है, जिसे गढ़ने की कोशिश हो रही है तो कहीं उसे तोड़ने की भी। शालिनी सिन्हा और उनके दोस्त की चिंता में तेजस्वी या चिराग नहीं, उस युवा नेतृत्व को खारिज करने की प्रवृति है, जो ‘युवराज’ जैसे जुमले के रूप में कभी राहुल गांधी और अब तेजस्वी यादव के लिए सुनाई दे रहे हैं। शालिनी इस मामले में ज्यादा मुखर हैं, ‘कहती हैं इस बात का क्या मतलब कि ‘उस खानदान के युवराज’ कहकर पूरी की पूरी नई सोच को ही खारिज करने की कोशिश हो रही है।’ कहती हैं, ‘मैं ये कहकर अपनी बात हल्की नहीं करूंगी कि तेजस्वी को मौका मिलना चाहिए। मैं ये सवाल करना चाहूंगी कि आप किसी के सोच को महज इसलिए कैसे खारिज कर सकते हैं कि उसके पिता से कभी कोई गलती हुई थी! आप उसके सोच का तार्किक जवाब क्यों नहीं देते?’ शालिनी मुखर होकर बताती हैं कि पिछले दो लोकसभा चुनावों में उन्होंने नरेंद्र मोदी को वोट दिया है।

शालिनी के मित्र राकेश राजनीति की इस प्रचलित जुमलेबाजी से सख्त नाराज हैं। कहते हैं, ‘उस खौफ को जिसे हमने देखा ही नहीं, हम पर क्यों थोपा जा रहा।’ सवाल उठाते हैं ‘नौकरी की बात को पहले आपने खिल्ली उड़ाकर खारिज किया, फिर कहा कि पैसा कहां से लाओगे, जेल से और अब कह रहे कि नौकरी तो तब मिलेगी जब कोई कम्पनी यहां आएगी!’ उनका सीधा सवाल है कि ‘बेरोजगारी का दंश झेल रहे जिस युवा के घाव पर मरहम लगाने की जरूरत थी, उस दंश को इस सारी जुमलेबाजी और तुर्की-ब-तुर्की ने गहरा ही किया है’।

इन युवाओं की बातों को पहले नीतीश कुमार, फिर सुशील कुमार मोदी और अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उन बयानों के आलोक में देखा और पढ़ा जाना चाहिए, जहां 10 लाख नौकरी के वादे पर महागठबंधन, खासतौर से तेजस्वी यादव पर हमले लगातार तल्ख और सीधे होते गए हैं। वरिष्ठ पत्रकार रंजीब इसे एनडीए की बड़ी रणनीतिक चूक मानते हैं। कहते हैं, ‘जिस तरह पूरी एनडीए ने सारी ऊर्जा एक खानदान की नींव खोदने में लगाई, उसकी आधी भी ऊर्जा अगर अपनी किसी योजना को स्टैब्लिश करने में लगाई होती तो शायद आज जमीन पर कुछ और दिख रहा होता। ये और ऐसे हमले बताते हैं कि एनडीए की राजनीति जमीन से काफी ऊपर के सच पर चल रही है, जमीन के अंदर का उसे अहसास ही नहीं है।’ रंजीब मानते हैं कि आज अगर लड़ाई सीधे तेजस्वी बनाम ‘पूरी एनडीए’ हो गई है तो इसका सारा श्रेय खुद एनडीए को है, जिसके आला नेताओं ने पुरानी नींव खोदने के चक्कर में अपनी ही कमजोर पड़ चुकी नींव और जर्जर कर ली।

दरअसल, एनडीए ने चुनाव के पहले चरण में ही कई प्रयोग कर लिए थे। पहले राष्ट्रवाद टेस्ट किया, फिर जंगलराज के बहाने हमलावर हुए और कुछ विकास की बातें भी हुईं, लेकिन दूसरा चरण आते-आते राष्ट्रवाद से तो किनारा पहले ही हो गया था, जंगलराज में पिता के कारनामे पुत्र पर थोपने के बहाने सीधे हमले शुरू हुए। 10 लाख नौकरी के वादे पर ‘नौकरी बेचने’ तक की बातें करके नरेटिव बदलने की कोशिश भी हुई। एनडीए से यह चूक कमोबेश बार-बार हुई।

वरिष्ठ पत्रकार अशोक मिश्र कहते हैं, ‘2000 और उसके बाद के चुनावों में लगातार यह जारी है। शुरुआत में तो ठीक था। लालू राज से निकले थे और सब कुछ ताजा था, लेकिन समय के साथ तो इस नरेटिव को बदल जाना चाहिए था। आप कब तक पुराने जुमलों पर चलते रहेंगे। दरअसल यह एक तरह की ‘मिसट्रस्ट बिल्डिंग’ है, जिसपर समय के साथ सोच बदलने की जरूरत थी। समझना होगा कि जिस दौर में आप ये बातें कर रहे हैं, उस दौर की बड़ी जमात के सामने ‘सुशासन’ की छवि तो है, लेकिन ‘जंगलराज’ की कहानी उसके लिए सिर्फ सुनी-सुनाई है।’

ऐसे में युवा अगर अपने लिए एक स्वाभाविक नकार देखने लगा, जिसमें सबकुछ था लेकिन वह खुद को अनुपस्थित पा रहा था, तो अस्वाभाविक नहीं था। पहले चरण की वोटिंग से पहले ही भोजपुर से लेकर नालंदा तक ये सवाल उभरा और शायद वोटिंग में भी दिखाई दिया हो, जिसका असल पता तो बाद में ही चलेगा। एनडीए को युवा पीढ़ी के इसी नकार को नकारने की जरूरत है। 18 से 35 साल वाली इस पीढ़ी के लिए नया नरेटिव ढूंढने की जरूरत है। समझना होगा कि ये वर्ग ‘लॉलीपॉप वायदों’ से आकर्षित नहीं होता। फौरी राहत भी उसे नहीं भाती। वह अपनी दुश्वारियों का स्थाई समाधान चाहता है। समझना होगा कि तेजी से बदलते इस दौर में परिवार के बड़े फैसले अब आमतौर पर यही वर्ग लेता है।

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