जानें क्यों गणपति की पूजा में तुलसी को शामिल नहीं किया जाता है

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जानें, गणपति की पूजा में तुलसी को क्यों नहीं शामिल किया जाता है - पूजा पाठ हिंदी में




हिंदू पंचाग के अनुसार हर साल
भाद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि को गणेश चतुर्थी का त्योहार मनाया जाता है और आज गणेश चतुर्थी है। शास्त्रों में बताया गया है कि इसी तिथि पर भगवान गणेश का
जन्म हुआ था।
गणेश चतुर्थी पर बुद्धि, समृद्धि और सौभाग्य के देवता भगवान
गणेश की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। गणेश चतुर्थी से 10 दिनों तक
गणेशोत्सव भी शुरू हो जाता है। गणेश चतुर्थी पर अलग-अलग मान्यता है। इन दस दिनों में सभी भक्तगण बाप्पा की खूब
सेवा करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते हैं।

लेकिन भगवान
गणेश की पूजा करते
समय भूलकर भी तुलसी का इस्तेमाल ना करें। क्योंकि गणपति जी की पूजा में
तुलसी को शामिल नहीं किया जाता हैं। इसके पीछे का कारण एक पौराणिक कथा से
पता चलता हैं। आज हम आपको उसी पौराणिक कथा के बारे में बताने जा रहे हैं…

प्राचीन समय की बात है। भगवान गणेश गंगा के तट पर भगवान विष्णु के घोर
ध्यान में मग्न थे। गले में सुन्दर माला, शरीर पर चन्दन लिपटा हुआ था और वे
रत्न जडित सिंगासन पर विराजित थे। उनके मुख पर करोडो सूर्यो का तेज चमक
रहा था। वे बहुत ही आकर्षण पैदा कर रहे थे। इस तेज को धर्मात्मज की यौवन
कन्या तुलसी ने देखा और वे पूरी तरह गणेश जी पर मोहित हो गयी। तुलसी स्वयं
भी भगवान विष्णु की परम भक्त थी। उन्हें लगा की यह मोहित करने वाले दर्शन
हरि की इच्छा से ही हुए है। उसने गणेश से विवाह करने की इच्छा प्रकट की।

भगवान
गणेश ने कहा कि वह ब्रम्हचर्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं और विवाह के बारे
में अभी बिलकुल नहीं सोच सकते। विवाह करने से उनके जीवन में ध्यान और तप
में कमी आ सकती है। इस तरह सीधे सीधे शब्दों में गणेश ने तुलसी के विवाह
प्रस्ताव को ठुकरा दिया। धर्मपुत्री तुलसी यह सहन नही कर सकी और उन्होंने
क्रोध में आकार उमापुत्र गजानंद को श्राप दे दिया की उनकी शादी तो जरुर
होगी और वो भी उनकी इच्छा के बिना।

ऐसे वचन सुनकर गणेशजी भी चुप
बैठने वाले नही थे। उन्होंने भी श्राप के बदले तुलसी को श्राप दे दिया की
तुम्हारी शादी भी एक दैत्य से होगी। यह सुनकर तुलसी को अत्यंत दुःख और
पश्चाताप हुआ। उन्होंने गणेश से क्षमा मांगी। भगवान गणेश दया के सागर है वे
अपना श्राप तो वापिस ले ना सके पर तुलसी को एक महिमापूर्ण वरदान दे दिए।

दैत्य
के साथ विवाह होने के बाद भी तुम विष्णु की प्रिय रहोगी और एक पवित्र पौधे
के रूप में पूजी जाओगी। तुम्हारे पत्ते विष्णु के पूजन को पूर्ण करेंगे।
चरणामृत में तुम हमेशा साथ रहोगी। मरने वाला यदि अंतिम समय में तुम्हारे
पत्ते मुंह में डाल लेगा तो उसे वैकुंट लोक प्राप्त होगा।

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