मनोज बाजपेयी: बॉलीवुड में स्टीरियोटाइप से जूझते एक अद्वितीय अभिनेता

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मनोज बाजपेयी भारतीय सिनेमा के उन चुनिंदा कलाकारों में से एक हैं, जिन्होंने अपने काम के जरिए एक नया मापदंड स्थापित किया है। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘फैमिली मैन’, और ‘सत्या’ जैसी फिल्मों में अपने अभिनय से उन्होंने दर्शकों के दिलों में खास जगह बनाई है। लेकिन हाल ही में मनोज ने अपनी करियर की कुछ चुनौतियों के बारे में खुलकर बात की, खासकर उस स्टीरियोटाइप के बारे में जो भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में अमीर पात्रों के लिए बना हुआ है।

मनोज बाजपेयी
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अमीर का किरदार: एक स्टीरियोटाइप

मनोज ने अपनी बात में बताया कि उन्होंने अपने दशकों लंबे करियर में केवल एक बार ही महाराज का किरदार निभाया, और वह भी श्याम बेनेगल की फिल्म ‘जुबेदा’ में। उनका यह तंज दरअसल इंडस्ट्री के उस चलन पर था जहां अधिकांश फिल्मकार एक अभिनेता को सिर्फ गरीब या मध्यम वर्गीय भूमिकाओं में ही देखना चाहते हैं। वे कहते हैं, “सिर्फ इन दोनों के अलावा कोई डायरेक्टर मुझे अमीर रोल में नहीं सोच सकता था। इंडस्ट्री में यह स्टीरियोटाइप है।”

इस बयान से साफ होता है कि कैसे मनोज बाजपेयी जैसे प्रतिभाशाली अभिनेता को भी अपनी पहचान बनाने के लिए इस स्टीरियोटाइप से लड़ना पड़ता है। यह एक कठिनाई है जो कई कलाकारों का सामना करती है, खासकर जब बात आ रही होती है भारतीय सिनेमा की।

श्याम बेनेगल और यश चोपड़ा का दृष्टिकोण

मनोज ने उल्लेख किया कि श्याम बेनेगल और यश चोपड़ा जैसे निर्देशकों के पास एक विशेष दृष्टिकोण था। उन्होंने बताया, “श्याम बेनेगल की सोच थी कि असली महाराज कोई ग्रीक गॉड की तरह नहीं दिखते हैं। वो सभी एक आम इंसान की तरह होते हैं।” इस दृष्टिकोण ने मनोज को एक अनूठी भूमिका निभाने का अवसर दिया, जिसमें वह अपने अभिनय कौशल का प्रदर्शन कर सके।

यश चोपड़ा की ‘वीर जारा’ में मनोज ने एक छोटे लेकिन प्रभावशाली राजनेता की भूमिका निभाई थी। उनका कहना है कि भले ही उनका किरदार छोटा था, लेकिन उन्होंने उसमें गहराई और विविधता लाने की पूरी कोशिश की। यह साबित करता है कि मनोज का अभिनय केवल भूमिकाओं की लंबाई पर निर्भर नहीं करता; बल्कि उनकी प्रतिभा उस किरदार की गहराई में छिपी होती है।

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अमीर पात्रों की कमी

मनोज बाजपेयी का यह बयान उस तथ्य को उजागर करता है कि भारतीय सिनेमा में अमीर पात्रों को आमतौर पर एक विशेष प्रकार के अभिनेता से जोड़कर देखा जाता है। यह एक नकारात्मक पहलू है, क्योंकि यह उन कलाकारों की प्रतिभा को सीमित कर देता है जो इन भूमिकाओं में भी अपनी छाप छोड़ सकते हैं। बॉलीवुड में ऐसे कई अभिनेता हैं, जो एक विशेष छवि में कैद हो गए हैं और इससे निकलना उनके लिए मुश्किल हो गया है।

मनोज का संघर्ष

मनोज बाजपेयी का संघर्ष केवल इस स्टीरियोटाइप से नहीं है, बल्कि उन्होंने खुद को कई तरह की भूमिकाओं में साबित किया है। वह उन भूमिकाओं को अपनाते हैं जो सामाजिक मुद्दों, मनोविज्ञान, और वास्तविकता को दर्शाती हैं। उनका अभिनय केवल स्क्रिप्ट के अनुसार नहीं होता, बल्कि वह उस किरदार की आत्मा में घुसकर उसे जीते हैं।

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समकालीन सिनेमा की दिशा

आजकल, समकालीन सिनेमा में बदलाव आ रहा है। कई युवा फिल्मकार अब वास्तविकता को दिखाने के लिए नए दृष्टिकोण अपना रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह बदलाव उन स्टीरियोटाइप को तोड़ने में मदद करेगा, जिनका जिक्र मनोज ने किया। वे कहते हैं, “मैं चाहता हूँ कि अगली पीढ़ी के फिल्म निर्माता इन स्टीरियोटाइप को खत्म करें और अभिनय को उसकी वास्तविकता में देखे।”

मनोज बाजपेयी ने न केवल अपने अभिनय से, बल्कि अपने विचारों और दृष्टिकोण से भी एक अलग पहचान बनाई है। उनकी कोशिश है कि वे अपने काम के माध्यम से समाज में बदलाव लाएं। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में क्या बॉलीवुड इस स्टीरियोटाइप से उबर पाएगा या नहीं।

उनका योगदान न केवल सिनेमा को प्रभावित करता है, बल्कि यह दर्शकों को भी सोचने पर मजबूर करता है कि वे किस प्रकार के किरदारों को देखने की अपेक्षा रखते हैं। अंततः, मनोज बाजपेयी जैसे अभिनेता ही हैं जो हमें वास्तविकता के करीब लाते हैं और हमें दिखाते हैं कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि एक प्रतिबिंब भी है।

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