पारसी धर्म, जोरोएस्ट्रिनिज़म, की उत्पत्ति छठी शताब्दी ईसा पूर्व प्राचीन फारस में हुई थी, जिसे आज हम ईरान के नाम से जानते हैं। यह धर्म पैगंबर जरथुस्त्र के एकेश्वरवादी सिद्धांतों पर आधारित है। प्राचीन फारस का साम्राज्य एक समय में विशाल और शक्तिशाली था, लेकिन इसके सम्राज्य पर सिकंदर के आक्रमण और अरब आक्रमणकारियों के हमलों ने इसकी धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, फारसी साम्राज्य को अपनी पहचान और अस्तित्व की रक्षा के लिए कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा।
अरब आक्रमण के बाद का संकट
सातवीं शताब्दी में अरबों ने फारस पर पूरी तरह कब्जा कर लिया, और वहां इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना की प्रक्रिया शुरू की। इस धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए, पारसी धर्मावलंबी समुद्री रास्ते से भागकर भारत आए। उन्होंने पहले गुजरात में शरण ली और बाद में महाराष्ट्र, खासकर मुंबई में अपनी नई जिंदगी की शुरुआत की। इस प्रकार, पारसी लोगों ने भारत को अपनी मातृभूमि मान लिया और यहां की मिट्टी में समाहित हो गए।
भारत में पारसी लोगों का योगदान
पारसी समुदाय ने न केवल अपनी पहचान को सुरक्षित रखा, बल्कि उन्होंने भारत के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने व्यवसाय, विज्ञान, और समाज सेवा के क्षेत्रों में न केवल बढ़-चढ़कर भाग लिया, बल्कि अपने प्रयासों से भारत के औद्योगिक विकास की नींव भी रखी।
1. औद्योगिक क्रांति में योगदान
पारसियों ने भारत में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके प्रगतिशील विचार और समर्पण ने देश की आर्थिक रूपरेखा को बदलकर रख दिया। इस क्षेत्र में टाटा परिवार सबसे प्रमुख था। जमशेदजी टाटा ने टाटा समूह की स्थापना की, जो आज सुई से लेकर विमान बनाने तक की श्रेणियों में कार्यरत है। उनका पिता, नुसरवानजी टाटा, एक पारसी पुजारी थे, जिन्होंने व्यापार के क्षेत्र में पहला कदम रखा।
2. रतन टाटा का योगदान
रतन टाटा, टाटा समूह के पूर्व अध्यक्ष, पारसी समुदाय के एक प्रमुख व्यक्ति थे। उन्होंने न केवल अपने उद्योग को आगे बढ़ाया, बल्कि समाज की भलाई के लिए भी काम किया। उनका मानना था कि व्यवसाय का उद्देश्य केवल लाभ कमाना नहीं, बल्कि समाज की सेवा करना भी होना चाहिए। उनकी कंपनी का दो तिहाई हिस्सा समाज सेवा में व्यय होता रहा, जो उनकी उदारता और देशभक्ति का प्रमाण है। रतन टाटा का योगदान भारतीय समाज में अद्वितीय था, और उनकी विरासत आज भी लोगों को प्रेरित करती है।
3. राजनीतिक योगदान
पारसी समुदाय ने भारतीय राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फिरोजशाह मेहता, जिन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की सह-स्थापना की और अध्यक्ष पद पर रहे, पारसी थे। दादाभाई नौरोजी, जिन्होंने ब्रिटेन से स्वतंत्रता की मांग की, वे भी इस समुदाय के सदस्य थे। इसके अलावा, फिरोज गांधी, जो भारत के पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पति थे, ने भी राजनीति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। पारसी समुदाय ने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, चाहे वह व्यापार हो, विज्ञान या राजनीति।
पारसी समुदाय की चुनौतियाँ
हालांकि, पारसी समुदाय की जनसंख्या में निरंतर कमी आ रही है। आज पूरी दुनिया में पारसियों की संख्या दो लाख से भी कम है, और भारत में केवल 50,000 से 60,000 पारसी ही बचे हैं। इस गिरती जनसंख्या के बावजूद, उनका योगदान अविस्मरणीय है। वे समाज में अपनी पहचान बनाए रखने में सक्षम रहे हैं, और अपने मूल्यों और परंपराओं को संजोए रखा है।
पारसी समुदाय की विशेषताएँ
पारसी समुदाय की कुछ विशेषताएँ हैं, जो उन्हें अन्य समुदायों से अलग बनाती हैं। इनमें से एक है उनकी धार्मिक प्रथाएँ, जैसे टॉवर ऑफ साइलेंस, जिसमें शवों को गिद्धों के सामने रखा जाता है। उनकी संस्कृति में नवजोत समारोह, शादी की विशेष रस्में, और नवरोज़ का उत्सव शामिल हैं। ये सभी परंपराएँ पारसी समुदाय के समर्पण, उनकी धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाती हैं।
पारसी समुदाय का भारत में योगदान अनमोल है। उन्होंने न केवल व्यवसाय और उद्योग में महत्वपूर्ण कार्य किया, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रतन टाटा जैसे व्यक्तित्व ने इस समुदाय की पहचान को और मजबूत किया है। आज, जब पारसी जनसंख्या लगातार घट रही है, तब भी उनका योगदान भारतीय समाज और संस्कृति में हमेशा के लिए जीवित रहेगा। उनका यह सफर, जो ईरान से भारत तक फैला हुआ है, हमें यह सिखाता है कि किस प्रकार एक समुदाय ने अपने धर्म, संस्कृति और पहचान को बनाए रखते हुए एक नए देश में अपनी जगह बनाई है।