मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले से लगभग 110 किलोमीटर दूर स्थित गौरिहार तहसील के किशनपुर गांव में एक किला है
जो वीर योद्धा आल्हा ऊदल के शौर्य और समर्पण का प्रतीक है। यह किला, जो कभी अभेद्य था और अपने समय की समृद्धि और शक्ति का प्रतीक था, अब संरक्षण के अभाव में खंडहर में बदल रहा है। यह किला न केवल स्थानीय इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि भारतीय संस्कृति और वीरता की अमूल्य धरोहर भी है।
टापूनुमा किले की सुरक्षा और महत्व
आल्हा ऊदल का किला एक टापूनुमा जगह पर बना है, जिसके चारों ओर तालाब थे। इन तालाबों में आज भी कुएं और बावड़ी तक पहुंचने के गुप्त मार्ग देखे जा सकते हैं। इन मार्गों की वजह से यह किला सुरक्षा के दृष्टिकोण से अभेद था। किले के चारों ओर विशाल परकोटा था, जो उसकी सुरक्षा को और भी मजबूत बनाता था। इस किले का निर्माण इस प्रकार किया गया था कि बाहरी आक्रमणकारी इसे भेद नहीं सकते थे।
गुप्त मार्ग और सुरंगें
जानकार बताते हैं कि एक गुप्त मार्ग केन नदी के टापू पर स्थित रनगढ़ के दुर्ग तक गया हुआ है। एक अन्य गुप्त मार्ग जुझार नगर तक गया है, जिसे अब बारीगढ़ के नाम से भी जाना जाता है। यह गुप्त मार्ग युद्ध के समय महत्वपूर्ण साबित होते थे, जब आल्हा ऊदल के सैनिक दुश्मनों को चकमा देकर सुरक्षित स्थानों तक पहुंच सकते थे।
आल्हा ऊदल का जन्मस्थान और छठी की कथा
किवदंती है कि आल्हा ऊदल का जन्म इसी किले में हुआ था। जानकार बताते हैं कि किले के एक हिस्से में बने कमरे में आल्हा की छठी दीवार पर अंकित थी। इसमें साफ तौर पर आल्हा की छठी लिखी हुई थी, जो गेरुए रंग का शिलालेख था। यह स्थान आल्हा ऊदल के जन्मस्थान और उनकी वीरता की याद दिलाता है।
खजाने की खोज में किले की दुर्दशा
किले में दफीना यानी जमीन में गड़ा खजाना खोदने वालों ने भी इस किले को नुकसान पहुंचाया है। किले के लगभग हर हिस्से में खजाने की तलाश में खुदाई की गई है, जिससे इसकी संरचना को भारी नुकसान पहुंचा है। खजाने की खोज में की गई खुदाई ने किले की दीवारों और अन्य संरचनाओं को कमजोर कर दिया है, जिससे यह अब जर्जर हो चुका है।
आल्हा ऊदल की रियासत और शिकार स्थल
आल्हा ऊदल इस किले में रहकर रियासत की निगरानी करते थे। इसे पहले दशपुरवा के किले के नाम से जाना जाता था। आस-पास घना जंगल होने की वजह से यह स्थान शिकार के लिए भी उपयुक्त था, और आल्हा ऊदल को यह जगह बहुत पसंद थी। किले से कुछ किलोमीटर की दूरी पर आल्हम देवी माता का शक्तिपीठ है, जहां आल्हा ऊदल ने देवी मां की आराधना की थी।
आल्हम देवी का मंदिर
आल्हा ऊदल देवी मां के परम उपासक थे और जब उन्होंने यहां पर साधना की तो देवी मां ने प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिए थे। इसके बाद इस स्थान पर एक मंदिर बनाया गया, जो कालांतर में आल्हम देवी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह मंदिर आज भी स्थानीय लोगों और भक्तों के लिए आस्था का केंद्र है।
संरक्षण की कमी और किले की जर्जर हालत
किले की वर्तमान स्थिति अत्यंत दयनीय है। संरक्षण के अभाव में यह किला खंडहर में बदल गया है। इसकी दीवारें दरक चुकी हैं और कई हिस्से टूट चुके हैं। पर्यटकों और पुरातत्व विभाग की उदासीनता के कारण यह ऐतिहासिक धरोहर धीरे-धीरे नष्ट हो रही है।
स्थानीय प्रयास और सरकारी उपेक्षा
गौरिहार के रहने वाले और इतिहास के जानकार शिक्षक ब्रजकिशोर पाठक बताते हैं कि किले को संरक्षित करने के लिए कई बार पर्यटन विभाग को लिखा गया। हालांकि, पर्यटन और पुरातत्व विभाग की टीम ने इसे पर्यटन और आय की दृष्टि से उपयुक्त नहीं माना। उनका कहना था कि शासन के करोड़ों रुपए खर्च होंगे और मनी रिफंड नहीं होगी क्योंकि यहां पर पर्यटन की संभावनाएं नहीं हैं।
किले के संरक्षण की आवश्यकता
यह किला न केवल स्थानीय इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि भारतीय संस्कृति और वीरता की अमूल्य धरोहर भी है। इसके संरक्षण के लिए उचित कदम उठाना आवश्यक है। किले की मरम्मत और पुनर्स्थापना के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर काम करना चाहिए।
आल्हा ऊदल का किला: एक ऐतिहासिक धरोहर
आल्हा ऊदल का किला, जो कभी वीरता और शौर्य का प्रतीक था, आज संरक्षण के अभाव में जर्जर हो चुका है। इस किले का इतिहास, इसकी गुप्त सुरंगें, और इसकी संरचना इस बात का प्रमाण हैं कि यह किला अपने समय में कितना महत्वपूर्ण था। आज, इसे संरक्षित करने की जरूरत है ताकि आने वाली पीढ़ियां इस गौरवमयी इतिहास को जान सकें और इससे प्रेरणा ले सकें।
यह किला हमें हमारी समृद्ध विरासत की याद दिलाता है और हमें यह सिखाता है कि हमें अपनी धरोहर को संजोकर रखना चाहिए। हमें उम्मीद है कि आने वाले समय में इस किले का संरक्षण होगा और यह फिर से अपने पुराने गौरव को प्राप्त करेगा।
http://आल्हा ऊदल का 1 किला: गौरवमयी इतिहास से जर्जर वर्तमान तक